बालोतरा। राष्ट्रसंत आचार्य पद्मसागरसूरीश्वर महाराज के क्रांतिकारी शिष्य मुनि विमलसागर महाराज ने कहा कि सुसंस्कार जीवन की अमूल्य संपदा है। सं...
बालोतरा। राष्ट्रसंत आचार्य पद्मसागरसूरीश्वर महाराज के क्रांतिकारी शिष्य मुनि विमलसागर महाराज ने कहा कि सुसंस्कार जीवन की अमूल्य संपदा है। संसार का बड़ा से बड़ा वैभव भी अच्छे संस्कारों की बराबरी नहीं कर सकता। अपने बालकों को विरासत में आप कुछ और दे सकें या नहीं, सुसंस्कार अवष्य दीजिये। अच्छे संस्कार न सिर्फ आपको सुख-शांति देंगे, आपके बालकों की जिन्दगी भी भव्य बना देंगे। धन जो काम नहीं कर सकेगा, वो काम सुसंस्कार कर लेंगे। संस्कारी संताने ही जीवन का सर्वश्रेष्ठ सुख है। रविवार को नाकोड़ा तीर्थ में उमड़ी विषाल जनमेदिनि को संबोधित करते हुए मुनिवर ने उसका प्रासंगिक वक्तव्य दिया। ‘सुसंस्कार है सबसे बड़ी संपदा‘ विषय पर जाहिर प्रवचन देते हुए भारतीय साहित्य के अच्छे भाष्यकार मुनि विमलसागर महाराज ने महात्मा गांधी, लोकमान्य तिलक, भारतीय संस्कृति, आधुनिक षिक्षा पद्धति और विज्ञान को लेकर मार्मिक तथ्य प्रस्तुत किये। उन्होंने कहा कि बीज को कम पानी मिलता है तो वह जल जाता है। यदि उसे अधिक पानी देते हैं तो वह सड़ जाता है। बीज को विराट् फलदायी वृक्ष बनाने के लिए पर्याप्त पानी, उर्वर भूमि, पौधे की सुरक्षा - सब जरूरी है। इसी तरह बालक भी कम प्यार से फीके बन जाते हैं। अधिक प्यार से बिगड़ जाते हैं। मारने से जिद्धी और कुंठित होते हैं। लेकिन ठीक देखभाल कर वात्सल्य देने से विकसित और होनहार बनते हैं। मुनिवर ने कहा कि परिवार बालक की पहली पाठशाला है। जो परिवार से सीखते हैं, वह स्थायी प्रभाव होता है। अगर परिवार के लोग संस्कारहीन हैं तो बालक भी वैसा ही होगा। यदि माता-पिता और अभिभावक सुसंस्कारों के प्रति जागृत है तो बालकों में सुसंस्कारों का बेहतरीन सिंचन होगा। सभी को सदैव यह बात याद रखनी चाहिए कि बालक वयस्कों पर पैनी नजर रखते हैं। वे जो देखते और सुनते हैं, वह सब सीखते हैं। बालकों के अवचेतन मन पर हर बात-घटना-वस्तु और व्यक्ति की छवी बनती है। आवष्यकता अनुसार अपनी संतानों को डांटना चाहिए, लेकिन उन्हें डराना नहीं चाहिए।
स्कूल-कॉलेज नहीं, माता-पिता ही बालक के खरे जीवन-निर्माता होते हैं। मुनि विमलसागर महाराज ने प्रवचन में गजब का समां बांधा। चार हजार से अधिक श्रोता डेढ़ घण्टे तक एकटकी से सुनते रहे। उन्होंने कहा कि संस्कारों का सिंचन कोई चमत्कार नहीं हैं। संस्कार सिंचन की प्रक्रिया तो गहरी साधना है। बहुत कम माता-पिता ही इस साधना में खरे उतरते हैं। कई तो सिर्फ बालकों को जन्म देना, बालकों के खेल समझते हैं और जीवन निर्माण का काम भूल जाते हैं। ऐसे घरों के बिगड़े बालक समाज व राष्ट्र के लिए बहुत बड़ी समस्या है। अधिकांश ऐसी संतानें अपराधी बनती हैं। यह अत्यंत खतरनाक तथ्य है कि आज अपने भारत देष में 65 प्रतिषत अपराधी 15 से 25 वर्ष की आयु के हैं। यह आंकड़ा दर्शाता है कि हम सुसंस्कारों के सिंचन का काम कहीं पीछे छोडक़र आ गये हंै। माता-पिता में आपसी तालमेल का अभाव भी सुसंस्कारों के सिंचन में बड़ी बाधा है। बालकों को एक तो कुछ न कहें, सिर्फ प्यार दे और दूसरा बार-बार डांटता रहे तो ऐसी स्थिति बालकों को चालाक बनाती है। बालक एक से प्यार करते हैं और दूसरे से दूरी रखते हंै। ऐसे बालक मां से अपनी डिमांड पूरी न होने पर पिता की संवेदनाषीलता को भुनाकर अपना काम निकाल लेते हैं। यह उचित नहीं है। माता-पिता दोनों को समझकर बालकों को संभालना चाहिए।
आचार्य पद्मसागरसूरीश्वर महाराज ने इसी विषय को आगे बढ़ाते हुए कहा कि आज षिक्षा का व्यावसायिकरण हो गया है। शिक्षा ऐसी होनी चाहिए जो बालकों के चरित्र का निर्माण करे। आधुनिक शिक्षा से तो पुरानी गुरूकुल पद्धति अत्यंत श्रेष्ठ थी। गुरूकुलों से सवशाली, विद्धन और राष्ट्रभक्त नागरिक पैदा होते थे। आज की षिक्षा पद्धति में जीवन निर्माण का अभाव है। आधुनिक षिक्षा पेट भरने व पेटी भरने की कला सिखा सकती है। जीवन जीने की कला नहीं सिखा पा रही, यह दुर्भाग्यपूर्ण है। आचार्य पद्मसागरसूरीश्वर महाराज ने आगे कहा कि जो माता-पिता अपने बालकों को अच्छी शिक्षाएं नहीं देते हैं, वे बालकों के हितेच्छु नहीं, शत्रु हैं। जन्म देना काफी नहीं है, बालकों को सुसंस्कारी और सदाचारी बनाना अत्यंत आवष्यक है। आज शिक्षण जगत् में तो बहुत भ्रष्टाचार है। पैसे कमाने के लिए पढ़ाया जाता है। जहां धन नजर में होगा, वहां सदाचार की चिन्ता क्यों कोई करेगा! पुराने जमाने में तो गर्भधारण से संस्कार दिये जाते थे। एक जमाना था जब माता - पिता षिक्षा देते तो बालक माफी मांगते और पैरों में पड़ते। रो जाते। आज जमाना ऐसा बदल गया कि यदि बालकों को जोर से कुछ कहो तो इस कदर नाराज होते हैं कि भोजन की थाली फेंककर चले जाते हैं घर से। अगले दिन उन्हें ढुंढने के लिए अखबारों में विज्ञापन देने पड़ते हैं। बिचारे माता-पिता बालकों के पैर पड़ते हैं। इसे क्या क्रांति कहेंगे या भ्रांति। महाभारत में दुर्योधन का अभिनय करने वाले अर्पित रांका आज जाहिर प्रवचन में विशेष रूप से उपस्थित थे। नाकोड़ा तीर्थ की ओर से ट्रस्ट अध्यक्ष अमृतलाल जैन, चातुर्मास संयोजक गणपतचंद पटवारी, ट्रस्टी उत्तमचंद मेहता, मदनलाल सालेचा, महेन्द्र चौपड़ा और अनिल सिंघवी ने अतिथितियों का स्वागत किया। गणिवर प्रशांतसागर महाराज ने भी धर्मसभा को संबोधित किया।
स्कूल-कॉलेज नहीं, माता-पिता ही बालक के खरे जीवन-निर्माता होते हैं। मुनि विमलसागर महाराज ने प्रवचन में गजब का समां बांधा। चार हजार से अधिक श्रोता डेढ़ घण्टे तक एकटकी से सुनते रहे। उन्होंने कहा कि संस्कारों का सिंचन कोई चमत्कार नहीं हैं। संस्कार सिंचन की प्रक्रिया तो गहरी साधना है। बहुत कम माता-पिता ही इस साधना में खरे उतरते हैं। कई तो सिर्फ बालकों को जन्म देना, बालकों के खेल समझते हैं और जीवन निर्माण का काम भूल जाते हैं। ऐसे घरों के बिगड़े बालक समाज व राष्ट्र के लिए बहुत बड़ी समस्या है। अधिकांश ऐसी संतानें अपराधी बनती हैं। यह अत्यंत खतरनाक तथ्य है कि आज अपने भारत देष में 65 प्रतिषत अपराधी 15 से 25 वर्ष की आयु के हैं। यह आंकड़ा दर्शाता है कि हम सुसंस्कारों के सिंचन का काम कहीं पीछे छोडक़र आ गये हंै। माता-पिता में आपसी तालमेल का अभाव भी सुसंस्कारों के सिंचन में बड़ी बाधा है। बालकों को एक तो कुछ न कहें, सिर्फ प्यार दे और दूसरा बार-बार डांटता रहे तो ऐसी स्थिति बालकों को चालाक बनाती है। बालक एक से प्यार करते हैं और दूसरे से दूरी रखते हंै। ऐसे बालक मां से अपनी डिमांड पूरी न होने पर पिता की संवेदनाषीलता को भुनाकर अपना काम निकाल लेते हैं। यह उचित नहीं है। माता-पिता दोनों को समझकर बालकों को संभालना चाहिए।
आचार्य पद्मसागरसूरीश्वर महाराज ने इसी विषय को आगे बढ़ाते हुए कहा कि आज षिक्षा का व्यावसायिकरण हो गया है। शिक्षा ऐसी होनी चाहिए जो बालकों के चरित्र का निर्माण करे। आधुनिक शिक्षा से तो पुरानी गुरूकुल पद्धति अत्यंत श्रेष्ठ थी। गुरूकुलों से सवशाली, विद्धन और राष्ट्रभक्त नागरिक पैदा होते थे। आज की षिक्षा पद्धति में जीवन निर्माण का अभाव है। आधुनिक षिक्षा पेट भरने व पेटी भरने की कला सिखा सकती है। जीवन जीने की कला नहीं सिखा पा रही, यह दुर्भाग्यपूर्ण है। आचार्य पद्मसागरसूरीश्वर महाराज ने आगे कहा कि जो माता-पिता अपने बालकों को अच्छी शिक्षाएं नहीं देते हैं, वे बालकों के हितेच्छु नहीं, शत्रु हैं। जन्म देना काफी नहीं है, बालकों को सुसंस्कारी और सदाचारी बनाना अत्यंत आवष्यक है। आज शिक्षण जगत् में तो बहुत भ्रष्टाचार है। पैसे कमाने के लिए पढ़ाया जाता है। जहां धन नजर में होगा, वहां सदाचार की चिन्ता क्यों कोई करेगा! पुराने जमाने में तो गर्भधारण से संस्कार दिये जाते थे। एक जमाना था जब माता - पिता षिक्षा देते तो बालक माफी मांगते और पैरों में पड़ते। रो जाते। आज जमाना ऐसा बदल गया कि यदि बालकों को जोर से कुछ कहो तो इस कदर नाराज होते हैं कि भोजन की थाली फेंककर चले जाते हैं घर से। अगले दिन उन्हें ढुंढने के लिए अखबारों में विज्ञापन देने पड़ते हैं। बिचारे माता-पिता बालकों के पैर पड़ते हैं। इसे क्या क्रांति कहेंगे या भ्रांति। महाभारत में दुर्योधन का अभिनय करने वाले अर्पित रांका आज जाहिर प्रवचन में विशेष रूप से उपस्थित थे। नाकोड़ा तीर्थ की ओर से ट्रस्ट अध्यक्ष अमृतलाल जैन, चातुर्मास संयोजक गणपतचंद पटवारी, ट्रस्टी उत्तमचंद मेहता, मदनलाल सालेचा, महेन्द्र चौपड़ा और अनिल सिंघवी ने अतिथितियों का स्वागत किया। गणिवर प्रशांतसागर महाराज ने भी धर्मसभा को संबोधित किया।
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